राजेश बैरागी की कलम से…
मैं लगभग डेढ़ बजे ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण पर था। किसान नेता आ चुके थे, और किसान धीरे धीरे आ रहे थे। आज उन्होंने प्राधिकरण पर धरने का कॉल दिया हुआ था। उनकी इतने बरस पुरानी समस्याएं हैं जितना पुराना प्राधिकरण है। मुआवजा अटकने से प्रारंभ होकर ये समस्याएं किसान की पहचान लुप्त होने तक पहुंचती हैं। इनके बीच में उनकी पुरानी आबादी को बख्शने,बैकलीज और अधिग्रहीत भूमि के बदले आबादी के भूखंडों को आवंटित न होने की विकट समस्याओं का बोलबाला है।इन समस्याओं से पार पाने के लिए किसान एक दो महीने में मोर्चा बनाकर प्राधिकरण आते हैं। धरना प्रदर्शन करते हैं और आश्वासनों की पुड़िया लेकर लौट जाते हैं। उसके बाद क्या होता है? प्राधिकरण खुद में मशरूफ हो जाता है। आज भी किसान आए। उन्होंने प्राधिकरण के दरवाजे पर धरना दिया। समाजवादी पार्टी के बड़े नेता राजकुमार भाटी समेत कई और बड़े किसान नेताओं ने प्राधिकरण के दरवाजे पर किसानों को संबोधित करते हुए प्राधिकरण की सोई हुई आत्मा को जगाने का प्रयास किया।किसान मुख्य कार्यपालक अधिकारी से वार्ता करना चाहते थे। यह उनका अधिकार है परंतु मुख्य कार्यपालक अधिकारी के कहीं और व्यस्त होने के कारण वार्ता नहीं हो सकी। प्राधिकरण के विशेष कार्याधिकारी रजनीकांत को ज्ञापन देकर किसानों ने धरना उठा लिया। हालांकि किसान पूर्व घोषणा करके प्राधिकरण आए थे। उन्हें धरना देने की आवश्यकता ही क्यों पड़ती है? इस प्रश्न का उत्तर मुझे दो किसानों की आपसी बातचीत से मिला।वे एक दूसरे से बात करते हुए कह रहे थे,- प्राधिकरण के अधिकारी किसानों का पानी लेना चाहते हैं।’ हमारे क्षेत्र में पानी लेने का अर्थ उनकी एकता और संगठन की शक्ति को मापने में लिया जाता है। क्या यह सच है?
(साभार: राजेश बैरागी (नेक दृष्टि) नौएडा)